Thursday, January 26, 2012

मेरा भारत गणतंत्र है
यहा एक्सप्रेशन banned है

facebook google ना करादे
धरम-धरम मे बैर

उन धर्म पंथी नेताओ का क्या
जो रोज़ उगलते ज़हर

इस इलाक़े मे पॉलिटीशियन के
IPR का ज़ोर है

मेरा भारत गणतंत्र है
यहा एक्सप्रेशन banned है

घर, बेटे को सत्य निष्ठा पढ़ाता है
ऑफीस मे प्रॅक्टिकल हो जाता है

फिर बेटा बाप से रिपोर्ट कार्ड
गर्लफ्रेंड, शराब चुपाता है

यही चूहा-बिल्ली का खेल
हमे सभ्य समाज बनता है

बेटा अपने बाप से नेता अपनी जात से
सुप्रीम हो जाता है

नारी को कुचालता है
हमारे कल्चर मे चलता है

मेट्रो मे middle aged अंकल
erotic हो जाता है

कुछ बोलो तो कजुराहो, कामसूत्र
से उम्र तक की दुहाई दे जाता है

आइडियल्स को चस्मे की तरह लगता है
 क्यूंकी इनका भी आजकल फॅशन आता है

चूँकि गण का तंत्र है
 नेता अपना धर्म निभाता है

पॉलिटीशियन से plotician
 हो जाता है

जीडीपी बढ़कर शाइन दिखता है
 'कामन मान' का विनिर्माण कर जाता है

हमारी सामाजिक प्रक्रिया को
 चरम तक पहुँचता है

माइक पर चढ़ जाता है
 चिल्ला चिल्ला के गाता है

मेरा भारत गणतंत्र है
इससलिए एक्सप्रेशन बॅंड है

जहाँ हर आधे घंटे मे
मा- बहनों का होता बलात्कार है

सबसे ज़्यादा बच्चे भूखे
ये हमारा आर्थिक विकास है

घर हो गये बड़े दिल छोटे
ये हमारा सामाजिक विकास है

औरत घरों मे क़ैद, भ्रूण-हत्या
मान-हत्या को लाचार है

कोई इसका चित्रा बना दे
तो वो गद्दार है

बस बस अब चुप हो जा

बस अब चुप हो जा 'कायल' ये बातें ना कह
सभ्य लोगों के सर पर खून सवार है
ये तमाशबीनों का शहर 'कायल'
ताली बजा, मुस्कुरा, यही अच्छा है

Tuesday, January 24, 2012


खुशी मे चुभन क्यूँ है
हैं पथ अंत मे रोशनी
फिर यह अँधेरा क्यू है

ये अंधेरा भी चला जाएगा
होगा पथ अंत मे सवेरा
फिर एक रात के लिए

हो रात को अंधेरा ठीक हैं
क्या दिन से जाएगा या 
रह जाएगा दिन मे रात लिए

कुछ सासों मे तूफान लिए
कुछ आँखों मे अरमान लिए
रह जाएगा दिन मे रात लिए

रात का डर लिए ख्वाब
दिन मे बस जाएगा
जायेगा सच से दूर लिए कहीं

सच ख़त्म हो जाएगा
ख्वाब का सच बाकी
रात का दिन लिए

रात का दिन लिए
घूम रहा हूँ
या दिन की रात

अंतर जान भी लिया
तो क्या फिर से
पहेले की तरह हो पाउँगा

क्षणिक खुशियों मे
क्या डूब पाउँगा
या ख्वाबो की टीस लिए

रह जाउँगा ख्वाबो मे
सवाल लिए, जवाब लिए
अपनी अक़ल-ए-खाक लिए

खुशी मे चुभन लिए
रोशनी मे अंधकार लिए
  चेहरे पर शिकन लिए

सोचता हूँ क्या कभी
उस पंछी-सा उड़ पाउँगा
गली के कुत्ते सा सो पाउँगा

बच्चों सा रो पाउँगा
पानी सा बह पाउँगा
फूलों सा खिल पाउँगा

इस कफस से
तस्सवुरों  से  अपनी 
आजाद हो पाउँगा ?  




Thursday, January 19, 2012

देखो नंगों की भीड़ नाचती 
कपड़ों की दुकानों में 

एक नंगा साहूकार बैठा 
कपड़ों के दीवानों पे 

बाहर बड़ा सा बोर्ड लगा था
'यहाँ नंगे प्रतिबंधित है'

समझ न आया बात क्या ये 
पहेली बड़ी अनोखी है 

है कपड़ों का ढेर लगा 
फिर क्यों जनता नंगी है 

था मेला सा नंगों का 
सब कहते थे 'कपडे पहनो'! कपडे पहेनो!'

एक नंगा कह रहा दूजे से 
वाह! क्या कपडे रंगीले तेरे है 

माँ बच्चों को सिखा रही थी
बेटा! देखो  ऐसे कपडें पहनते है 

कुछ नंगे अख़बारों में 
छेद बड़े बड़े करते है 

फिर अख़बारों को ओढ़ के कहते 
इन छेदों से दीखते नंगे है 

तभी शोर सुना 'कपडे पहने' 
'कपडे पहनने दे' कोई चिल्ला रहा है

खुद है नंगा और नग्नता पर 
प्रश्नचिन्ह लगा रहा है


हमने पुछा पास खड़े एक नंगे से
उसने कहा यह विचार इसके पुरखों के

फिर देखा तीन नंगों को, तीन नंगों ने 
नग्नता के जुर्म में सजा सुनाई है!

यह बात हमारे समझ में न आई 
तभी एक नग्न रिपोर्टर हमारे पास आई

तीन नंगों का न्याय किस प्रकार नग्न है?
इस बात पर हमसे टिपण्णी चाही 

सुनाई दिया की कोई मशहूर नंगा गा रहा है 
'कपडे लो, कपडे दो! कपडे लो कपडे दो!' 

तभी अचानक कहा किसी ने 
रुको! रुको! आप अन्दर कैसे आये है?

आये तो आये है पर इस प्रकार
नग्नता का नंगा नाच क्यों मचाये है

पता नहीं आपको क्या यह
यहाँ नग्नता प्रतिबंधित है 

हमने उन्हें समझाया की हे बंधू!
हमने तो कानून के मुताबिक कपडे पहने है

कहा उसने समझो मत अपने को चालक 
कानून के हाथ बहुत लम्बे है

हमने कहा कानून! 
मगर आप भी तो नंगे है 

धर दबोचा उसने हमें नग्नता के अपराध में 
रात भर खायी मार तो हुआ अंदाज़ा 


की वो कानून के बाशिंदे है 
और  हम भी कितने नंगे है 

सुना है इसका किया था 
कुछ नंगों ने विरोध प्रदर्शन


उन्हें न था हमसे-कानून-कपड़ों से लगाव 
उनका था बस विरोध के प्रति समर्पण 

वो चलते फिरते कंप्लेंट बॉक्स की तरह
रोज़ नारे लगते है, फिर थक के सो जाते है

एक बुज़ुर्ग हमें देख कर मुस्कुराये
'इतिहास' है  नाम उनका, बता पास आये


उन्हें भी नहीं याद की
वो इस शहर में कब आये


बताया हमको की यहाँ तुम्हारी तरह
कपडे वाले कई लोग आये


कुछ ने चिल्ला चिल्ला कर खुद को मार लिया
कुछ को चिल्ला चिल्ला के यहाँ के लोगों ने मार दिया


पर वो भी यह पहेली न सुलझा पाए
मैं आज भी नंगा हूँ


अपनी झुरियों के पीछे
अपनी लाचारी न छुपा पाए 


हमने उनकी बात मान ली
की कौन फालतू सर खपाए ?


अब यहाँ हम भी नंगे, तुम भी नंगे 
और नग्नता वर्जित है .....







Wednesday, January 11, 2012

ज़िंदगी से ज़िंदगी के सफ़र मे 'कायल'
अरमानो मे हुए दफ़्न, दम निकला
फिर भी हँसी थी लबों पर
की मेरा जनाज़ा जो निकला, खूब निकला

Friday, January 06, 2012

अब तुझसे मिलने की वो चाहत ना रही..
तू तो रही पर तेरी आदत ना रही...

वो मंज़र भी देखा हैं
इन चौराहों- गलियों ने

भटकते थे यही, इंतेज़ार मे
बेक़ारारी  लिए आँखों मे

बेक़ारारी जिसमे गुमनाम बने
अब वो लाचारी ना रही

अब तुझसे मिलने की वो चाहत ना रही
तू तो रही पर तेरी आदत ना रही

एक ऐसा भी वक़्त देखा है
इन आँखों ने 'कायल'

की तेरी एक आह पर
हम सिहर उठते थे

 जो कोई देखे तुझे
खाक हम हो उठते थे

तुझे भीड़ मे बचाकर दुनिया की
अपनी बाहों मे हम रखते थे

प्यार मे अब वो खुमारी कहाँ रही
तू तो रही पर तेरी आदत ना रही

तू ख्वाब, हक़ीक़त या खुदा
अब तो मेरे ग़ज़ल का शेर रही

वक़्त का कसूर कहे, किस्मत
फलसफा या मर्ज़ी खुदा की

किसको पता है रगिस्तान की तारिख 
उसके दामन मे, तपती रेत रही

जब आया कोई पास तो अहसास हुआ
दिन मे गर्मी रही, रात को ठंडक रही

अब तुझसे मिलने की वो चाहत ना रही..
तू तो रही पर तेरी आदत ना रही...

'हम डूब के कर भी लेते आग का दरिया पार
पर दरिया मे अब डूबने वाली गहराई ना रही'