Thursday, December 20, 2012

पलना

सुबह सैर से आते हुए
अपनी ही धुन मे
अक्सर सड़क पर
'आवारा' कुत्तों को
पुचकार देता हूँ
और वो भी
प्यार के भूखे
मुझ पर यूँ चढ़ने लगते है
जैसे हमारा
कई सालों का साथ हो
प्यार के एक पल के लिए
अपना सारा अभिमान
कर्तव्या का गुमान
त्याग कर
बस खो जाते है
प्रेम के उस एक क्षण मे

बड़े-बड़े घरों
की सलाखों से झाँकते हुए
छतों से आधे लटके हुए
'पालतू' कुत्ते
बस भोखते ही रहते है
दूसरे कुत्तों पे
आदमियों पे, गाड़ियों पे
कितना भी पुचकारो
पास नही आते
हमे अपना नही मानते-जानते
अपनी संपूर्णता की मृगतृष्णा मे
'पाले' जाते है

इंसान भी एक उम्र के बाद
'आवारा' से 'पालतू' हो जाता है
और हो जाता है 'खुखार'
अपने ही मान अपमान की छतों पे चढ़कर
भोक्ता रहता है
छूट नही पाता अपनी ही ज़ंज़ीरों से
कोई करना चाहे प्यार
तो पास नही आता
'अपनी' ही सलाखों मे
क़ैद हो जाता है
या यूँ कहे
'पलने' लग जाता है

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