दस्तूर-ए- दुनिया
अजब हो गया
खून बहाने वाला बेवफा,
चूसे, वो समझदार हो गया
बलात्कारी थे सारे बेगुनाह
शोषित गुनहगार हो गया
आज़ादी गयी, हवा-पानी गया
आदमी इतना लाचार हो गया
जिस अहल-ओ-अयाल पर तुझे था गुरूर
उसी सूली पर तू हलाल हो गया
तोड़ दे यह ज़ंज़ीरें गुलामी की अब
आज़ादी का साठवाँ साल हो गया
थोड़ा परवान दे अपनी आवाज़ को
मुल्क, चौराहों पर नीलाम हो गया
थोड़ा तो खून को दे अपने उबाल
रूह पर रिश्वतखोरी का इल्ज़ाम हो गया
मेरे ज़मीर अब तो करवट ले
हल रिक्शों पर सवार हो गया
मेरे ज़मीर अब तो करवट ले
बचपन भूखा-नंगा बेहाल हो गया
मेरे ज़मीर अब तो ले करवट
रंग-ए-दहशत पुतलियों का लाल हो गया
उठ जला शमा दे चुनौती रात को
ज़मीन-ए-आफताब पे अंधेरो का राज हो गया
आम आदमी तुम क्यू इतने आम हो
अब तो आम भी महँगा हो गया
“मेरी लड़ाई तो अंधेरे के खिलाफ थी
वो शमा बुझते रहे, मैं जलाता रहा”