Tuesday, August 02, 2011

बसाए थे कई काफिले सपनो के
आज ना सपने, ना काफिले है

निकल आया हूँ दूर मैं कहीं
अब ना मंज़र, ना नज़ारे हैं

सफ़र अकेले इन रातों मे 'कायल'
मेरे साथी तो बस सितारे हैं

एक सराब-सी यह ज़िंदगी
रेगिस्तान, कहाँ साहिल-किनारे हैं

साहिल की रेत पर लिख रहा हूँ
अपना मुक़द्दर हर रोज़ जैसे

इसमे जीतना  'कायल'
न नसीब हमारे  हैं?

सुबह से शाम, शाम से रात
फिर सूरज,एक नया दिन

नये मौसम, नये लोग
लोगों के नये मिज़ाज़

मिज़ाज़ओं की उँछ-नीच
ज़हन मैं कुछ यादें

ज़िंदगी, यह सफ़र
कई काफिलों मे

हम आए थे कहा से
इसके क्या मायने हैं

रोकर आना रुलाकर जाना
हंसकर अलविदा, दस्तूर ज़िंदगी

सिमट गयी है सोच या
सिमटा सोच के दायरों मे

'यह बात अच्छी हैं लेकिन'
यह ना कहना

अभी इन बातों के
कुछ मायने हैं

# सराब= mirage

2 comments:

  1. वाह !
    इस कविता का तो जवाब नहीं !
    विचारों के इतनी गहन अनुभूतियों को सटीक शब्द देना सबके बस की बात नहीं है !
    कविता के भाव बड़े ही प्रभाव पूर्ण ढंग से संप्रेषित हो रहे हैं !
    आभार!

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