Sunday, December 30, 2012

रोटी

खुशियों की मुफ़लिसी मे मर गये ख्वाब
रात को भूखे पेट, मुंह लटकाए
ताकते रहते है चाँद को
अपनी फिलोसफी के
फटे कपड़ों मे टॅक टॅकी लगाए
और फिर चाँद अचानक लगने लगता है 'रोटी'
आँखों से खाकर,  भर लेते है मन
पर पेट की आग कैसे बुझे?
इंतेज़ार सुबह का, सूरज का
उसकी आग से, कम से कम
इस जिल्द की भूख मिटे
और मैं सो जाउ इस तरह
जैसे सड़क का कुत्ता
रात भर अपनी ही गली मे भौंकने के बाद
धूप की गर्माहट मे सड़्क किनारे, बेफ़िक्र

की एक और भूखी- ठंडी रात
मेरा इंतज़ार कर रही है


'मुर्गा'

आवाज़ उठाना अच्छी बात है
पर हर आहट पर भौंकने वाला
कुत्ता  हो जाता है
कुत्ता होना भी अच्छी बात है
की वो हद से गुज़रने पर
काट ख़ाता है
बुरा है मुर्गा हो जाना
जो हलाल होने से पहले
बहुत शोर मचाता है
पर काट नही ख़ाता
शायद उसका 'शाकाहार' ही
उसे 'मुर्गा' बनाता है

Thursday, December 20, 2012

पलना

सुबह सैर से आते हुए
अपनी ही धुन मे
अक्सर सड़क पर
'आवारा' कुत्तों को
पुचकार देता हूँ
और वो भी
प्यार के भूखे
मुझ पर यूँ चढ़ने लगते है
जैसे हमारा
कई सालों का साथ हो
प्यार के एक पल के लिए
अपना सारा अभिमान
कर्तव्या का गुमान
त्याग कर
बस खो जाते है
प्रेम के उस एक क्षण मे

बड़े-बड़े घरों
की सलाखों से झाँकते हुए
छतों से आधे लटके हुए
'पालतू' कुत्ते
बस भोखते ही रहते है
दूसरे कुत्तों पे
आदमियों पे, गाड़ियों पे
कितना भी पुचकारो
पास नही आते
हमे अपना नही मानते-जानते
अपनी संपूर्णता की मृगतृष्णा मे
'पाले' जाते है

इंसान भी एक उम्र के बाद
'आवारा' से 'पालतू' हो जाता है
और हो जाता है 'खुखार'
अपने ही मान अपमान की छतों पे चढ़कर
भोक्ता रहता है
छूट नही पाता अपनी ही ज़ंज़ीरों से
कोई करना चाहे प्यार
तो पास नही आता
'अपनी' ही सलाखों मे
क़ैद हो जाता है
या यूँ कहे
'पलने' लग जाता है

Monday, December 10, 2012

वो तुलसी का पौधा

मेरे आगन का वो तुलसी का पौधा
जो माँ लाई थी घर से
जिसे बड़े जतन से
माँ ने मेरे आँगन मे था बोया
पुछा था
सूखा तो ना दोगे?
और मैं मुस्कुराया था!

हाँ वही तुलसी का पौधा
जिसे मैने रोज़ पूरी श्रद्धा से
पानी दिया था
वही तुलसी का पौधा
जिसने अकेले वक़्त मे
मेरा साथ दिया था
वही तुलसी का पौधा
जिसकी पवित्रता पर
मैने विश्वास किया था

घर गया कुछ दिनो के लिए
माँ से मिलने सौपकर लोगों को
अपना तुलसी का पौधा

आया आज तो देखा
वो तुलसी का पौधा
सुख गया है

मेरी ही ग़लती है
मुझे समझना चाहिए था
अपने तुलसी के पौधे
दूसरों की श्रद्धा पर उगाए नही जाते
लोग दे जाए शर्मिंदा होकर नये पौधे
पर उन्हे हम अपना बना नही पाते

अब रोज़ उसे पानी देता हूँ
की उग जाए, उग जाए
पर सूखे हुए पौधे
खड़े रहते है
टूटते नही, उगते नही
रहते है
एक कंकाल की तरह
अपनी ज़मीन को शमशन किये

काट भी दिया जाए
तो उसकी जड़े गढ़ी
पकड़ी रहती है मिट्टी को
छोड़ती नही
अगर उखाड़े जड़ से
तो भी एक गद्दा रह जाता है
गर छुपाउ गद्दे को
तो मिट्टी भुर्भुरी रह जाती है
उस पर क्या नया पौधा जड़ पकड़ पाएगा?
क्या मैं उसी विश्वास के साथ
मन मे फिर तुलसी संझो पाउँगा?
या दब के रह जाऊंगा 
एक ग़लती के बोझ तले?

यही सोच तने को काट देता हूँ
जड़ों को गढ़ा रहने देता हूँ
की शायद वक़्त के साथ गल जाए
ज़मीन कुछ और उपजाउ हो जाए..
शायद अगली बरसात मे
उसी तुलसी का कोई बीज उग आए