Monday, December 10, 2012

वो तुलसी का पौधा

मेरे आगन का वो तुलसी का पौधा
जो माँ लाई थी घर से
जिसे बड़े जतन से
माँ ने मेरे आँगन मे था बोया
पुछा था
सूखा तो ना दोगे?
और मैं मुस्कुराया था!

हाँ वही तुलसी का पौधा
जिसे मैने रोज़ पूरी श्रद्धा से
पानी दिया था
वही तुलसी का पौधा
जिसने अकेले वक़्त मे
मेरा साथ दिया था
वही तुलसी का पौधा
जिसकी पवित्रता पर
मैने विश्वास किया था

घर गया कुछ दिनो के लिए
माँ से मिलने सौपकर लोगों को
अपना तुलसी का पौधा

आया आज तो देखा
वो तुलसी का पौधा
सुख गया है

मेरी ही ग़लती है
मुझे समझना चाहिए था
अपने तुलसी के पौधे
दूसरों की श्रद्धा पर उगाए नही जाते
लोग दे जाए शर्मिंदा होकर नये पौधे
पर उन्हे हम अपना बना नही पाते

अब रोज़ उसे पानी देता हूँ
की उग जाए, उग जाए
पर सूखे हुए पौधे
खड़े रहते है
टूटते नही, उगते नही
रहते है
एक कंकाल की तरह
अपनी ज़मीन को शमशन किये

काट भी दिया जाए
तो उसकी जड़े गढ़ी
पकड़ी रहती है मिट्टी को
छोड़ती नही
अगर उखाड़े जड़ से
तो भी एक गद्दा रह जाता है
गर छुपाउ गद्दे को
तो मिट्टी भुर्भुरी रह जाती है
उस पर क्या नया पौधा जड़ पकड़ पाएगा?
क्या मैं उसी विश्वास के साथ
मन मे फिर तुलसी संझो पाउँगा?
या दब के रह जाऊंगा 
एक ग़लती के बोझ तले?

यही सोच तने को काट देता हूँ
जड़ों को गढ़ा रहने देता हूँ
की शायद वक़्त के साथ गल जाए
ज़मीन कुछ और उपजाउ हो जाए..
शायद अगली बरसात मे
उसी तुलसी का कोई बीज उग आए

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