Sunday, December 30, 2012

रोटी

खुशियों की मुफ़लिसी मे मर गये ख्वाब
रात को भूखे पेट, मुंह लटकाए
ताकते रहते है चाँद को
अपनी फिलोसफी के
फटे कपड़ों मे टॅक टॅकी लगाए
और फिर चाँद अचानक लगने लगता है 'रोटी'
आँखों से खाकर,  भर लेते है मन
पर पेट की आग कैसे बुझे?
इंतेज़ार सुबह का, सूरज का
उसकी आग से, कम से कम
इस जिल्द की भूख मिटे
और मैं सो जाउ इस तरह
जैसे सड़क का कुत्ता
रात भर अपनी ही गली मे भौंकने के बाद
धूप की गर्माहट मे सड़्क किनारे, बेफ़िक्र

की एक और भूखी- ठंडी रात
मेरा इंतज़ार कर रही है


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