Thursday, May 15, 2008

उन्हें क्या कहे जो पत्थर बरसाते हैं हम पर

तो हम मुस्कुराते हैं

वह इकरार -ए -मोहब्बत करते हैं बार- बार

जो नही जानते की इश्क क्या हैं

वह तो ना समझ हैं, कहते हैं बार बार

हम समझते हैं इसलिए मुस्कुराते हैं

उनसे लड़कर, रुठकर, टूटकर , किसी लहर की तरह

हम उनके ही पास चले आते हैं

यह जाने कैसा रिश्ता हैं साहिल से

जिससे हम निभाते हैं

तुझसे दूर जाने के लिए , तुझे भुलाने के लिए

तेरी बाहों में टूट जाते हैं

इजहार होके भी प्यार हो यह ज़रूरी तो नही

प्यार हो तो इजहार यह भी ज़रूरी नही

पर तेरी चाहत हैं ऐसी की

‘कायल’ भी कायल हो खीचे चले आते हैं

व्हो समझ न जाये इस बात को

तो हम मुस्कुँराते हैं

एक राज़ हैं गहरा जिसे हम छुपाते हैं

हम मुस्कुँरते हैं

“रौशनी सूरज से रिश्ता तोड़ दे , सूरज को छोड़ दे ये और बात हैं

मगर अपनी रूह में कैद उसके अक्स को कैसे छोड़ेगी ”

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