Tuesday, May 15, 2012

उठ ख़यालों से निकल 'कायल'
दुनिया का असल रंग  देख

चाँद पर परिया नही रहती
वहाँ है पथरीले पहाड़ या
काले गहरे गड्ढे
पानी भी ना मिलेगा जहाँ,
ऐसे जहाँ को जन्नतों मे ना देख

उठ ख़यालों से निकल 'कायल'
दुनिया का असल रंग  देख

तुम बनाओगे तालाब बड़ा खूबसूरत
उसके आस पास एक सुंदर बाग बनाओगे
खिले बाग मे पंछियों को बुलाओगे
ये उसकी मछलियों को खा जाएँगे
तेरे पौधों से खुद का घर सजाएँगे
पंछियों को क़ैद कर, आज़ादी चिल्लाएँगे
आँख खोल ख्वाबों से निकल
इन जानवरों की सभ्यता को देख

उठ ख़यालों से निकल 'कायल'
दुनिया का असल रंग  देख

क्या पता कब से जमा कर रखा है
कचरा तूने चारो तरफ
अब तो इसमे कीड़े पद गये
वो कीड़े रेंग रहे है
बदन पर रूह पर
अब तो उठ यार
इस कचरे को फेक

उठ ख़यालों से निकल 'कायल'
दुनिया का असल रंग  देख

फरिश्तों सी बातें ना कर
ये तेरी जन्नत नही
इंसान बहुत ख़ुदग़र्ज़ है यहाँ
इसे बस इसी खुदगर्जी
के दायरे मे देख

उठ ख़यालों से निकल 'कायल'
दुनिया का असल रंग  देख

ये तुझे मसीहा भी बना देंगे
अपने पापों से पीछा छुड़ाने के लिए
ये आँसू भी बहाएँगे और जंगल भी घुमाएँगे
तुम याद करते रह जाओगे
ये चुटकी मे भुलाएँगे
इनका प्यार बड़ा ही महेंगा है
बच सकता है यहाँ
तो इनके प्यार से बच
मान मेरी बात आया है यहाँ तो अब
दुनिया को इंसानों की तरह देख

उठ ख़यालों से निकल 'कायल'
दुनिया का असल रंग  देख

Saturday, May 12, 2012

छोटे छोटे पंछी


शहर के बीचों बीच
इन बड़ी बड़ी इमारतों
में रहते हैं
छोटे छोटे पंछी
झांकते हैं दरीचों से
छुप जाते है उड़ जाते है
हमारे दुनिया के दरिचों मे
अपनी दुनिया बासाते है
छोटे छोटे पंछी
शहर के बीचों बीच
इन  बड़ी बड़ी इमारतों
में रहते हैं
छोटे छोटे पंछी

क्या सोचते होंगे कभी
की इन इमारतों मे
इस शाहर मे
उनकी क्या जगह है?
इस दुनिया ने उनको
इन छोटे छोटे दरिचों के
सिवा क्या दिया है?
पता नही
लगते तो है
बड़े बेफिक्र पंछी
शहर के बीचों बीच
इन बड़ी बड़ी इमारतों
में रहते हैं
छोटे छोटे पंछी

उड़ा देते है, तोड़ देते है
खोंसले इनके रोज़
इमारतों मे रहने वाले लोग
कुछ घर उजाड़कर
घर अपना बासाते है
इमारतों मे रहने वाले लोग
इस अधिकार प्रतिकार  
की आग से अछूते है
ये छोटे छोटे पंछी
शहर के बीचों बीच
इन बड़ी बड़ी इमारतों
में रहते हैं
छोटे छोटे पंछी


खाते है गाते है
बनाते है घर
बड़े करते है बच्चे
उनको उड़ा देते है
सो जाते है
मरने पर भी
शोर ना मचाते है
सोचता हूँ तो लगता है
तस्सवुर की क़ैद से
आज़ाद है
आसमान मे उड़ते
ये छोटे छोटे पंछी
शहर के बीचों बीच
इन बड़ी बड़ी इमारतों
में रहते हैं
छोटे छोटे पंछी

कम है

दूरियाँ हैं बहुत फासला कम है
हैं प्यार, मोहब्बत, जज़्बात बहुत
पर अब इन बातों के लिए
कुछ वक़्त कम, कुछ अल्फ़ाज़ कम है

हम तो आशिक़ है, शायर है, कायल है
आँसू को समंदर बनाने का हुनर जानते है
पर जिनमे डूब कर तर जाए
आजकल ऐसे ख्यालात कम है

तुम आना चाहते हो तो आओ
प्यार लेना चाहते हो तो आओ
मेरी बाहे सदा खुली है पर
अना के लिए इनमे फासला कम है

सोचो बहुत करने से पहले
या मत सोचो बिल्कुल पहले
बीच की बानिए की ज़िंदगी
मुनाफ़ा है बहुत, मज़ा कम है

अना = ego

Sunday, May 06, 2012

काँटा

काँटा सुराक़ से अंदर जाता है
बड़ा छेड़ बनाकर निकाला जाता है
घाव भर जाता है
दाग रह जाता है
भूल जाते है हम सब कुछ
फिर एक दिन अचानक सब कुछ
याद आ जाता है
ज़हन पे छा जाता है
आज से कल मे ले जाता है
जब तक आते है बाहर हम इससे
आज चला जाता है
दूर कहीं उस पार
अरमानो के क़त्ल मे 'कायल'
क़ातिल खुद क़त्ल हो जाता है

Saturday, May 05, 2012

अच्छी नही

तू तो हवा हैं बहता रहता
हसीन नज़रों से दिल्लगी अच्छी नही

इंसान की ख्वाबों से वफ़ा अच्छी नही
काँच की पत्थरों से वफ़ा अच्छी नही

बातें अच्छी है प्यार की इकरार की
पर इन बातों से वफाई अच्छी नही 

चाँद की पहचान हैं  उसके दाग 'कायल'
प्यार में दागों से बेरुख़ाई अच्छी नही

बढ़ जाए जो दर्द बहुत
सड़को पे निकालो दुनिया देखो

यूँ कमरे मे बैठे दुनियादारी की बाते
अच्छी हैं, सच्ची नही, सच्ची नही

गाली दो, गाली देना अच्छा हैं
पर हर बात पे गली अच्छी नही

खाक

कोई लकड़ी, कोई आग
कोई धुएँ से खफा है
समझाए कैसे, की इनमे
जले कोई, जले कोई
बने कोई, उठे कोई
आख़िर मे सिर्फ़
खाक ही बचा है

Tuesday, May 01, 2012

चक्रव्यूह


यह चक्रव्यूह यह
बड़ा जटिल है
जितना बाहर है
उससे ज़्यादा अंदर 
कड़ी एक तोड़
कर इसकी, जैसे
अंदर जाता हूँ
कई नयी कड़ियों को
जुड़ा हुआ पाता हुँ
चक्रव्यूह को जटिल
कई गुना पाता हूँ
आगे बढ़ने का भान
जटिलता मे खो हो जाता है
बस रह जाता है तो
गहरा एहसास रह जाता है
वेग बाहर निकल जाने का
मुझे ओर अन्दर ले जाता है

जैसे ही करता हूँ मैं एक योद्धा परहास्त
योद्धाओ का समूह नया आ जाता है
युद्ध का नियम कोई बाकी न
कुरुक्षेत्र मे रह जाता है
मिटती सीमाए यूँ फिर
कुरुक्षेत्र जीवन मे
युद्ध जीवन मे अंतर
कोई न रह जाता है

आक्रमण करता हूँ खुद
घाव गहरा पाता हूँ
पर चक्रव्यूह अब यह
तोड़ नही पाता हूँ

क्यूंकी यह अब सबके अंदर है
और मैं अभिमन्यु की तरह विवश
तुम्हारे जीवन मे घुस सकता हूँ
निकल नही सकता
विजेताओ की पृष्ठभूमि बन सकता हूँ
विजेता नही बन सकता
खुद एक चक्रव्यूह बन सकता हूँ  
बाहर नही निकल सकता